Kyoto Protocol क्योटो प्रोटोकॉल क्या है? It’s most importance and effect 1997

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) क्या है? जानें इसका इतिहास, उद्देश्य, भारत पर प्रभाव, और जलवायु परिवर्तन से लड़ने में इसकी भूमिका। हिंदी में विस्तृत जानकारी।

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) : जलवायु परिवर्तन से लड़ने का वैश्विक प्रयास

जलवायु परिवर्तन आज विश्व की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। ग्लोबल वॉर्मिंग, बढ़ता तापमान, और प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति ने मानवता के सामने कई सवाल खड़े किए हैं। इन समस्याओं से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर कई समझौते और नीतियां बनाई गई हैं, जिनमें से क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) एक महत्वपूर्ण कदम है। इस लेख में हम क्योटो प्रोटोकॉल के बारे में विस्तार से जानेंगे—यह क्या है, इसका उद्देश्य, इतिहास, कार्यान्वयन, और भारत पर इसका प्रभाव।

Kyoto Protocol क्योटो प्रोटोकॉल क्या है? इसका महत्व और प्रभाव

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) क्या है?

क्योटो प्रोटोकॉल एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है, जिसे 1997 में जापान के क्योटो शहर में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (UNFCCC) के तहत अपनाया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रीनहाउस गैसों (GHG) के उत्सर्जन को कम करना है, जो ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण हैं।

यह प्रोटोकॉल 2005 में लागू हुआ और इसमें शामिल देशों को अपने उत्सर्जन स्तर को कम करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य किया गया।क्योटो प्रोटोकॉल के तहत, विकसित देशों को अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 1990 के स्तर से 5.2% कम करने का लक्ष्य दिया गया। यह समझौता जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक ऐतिहासिक कदम था, क्योंकि यह पहली बार था जब वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन में कमी के लिए बाध्यकारी लक्ष्य निर्धारित किए गए थे।

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) का इतिहास

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) की नींव 1992 में रियो डी जनेरियो में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन (Earth Summit) में रखी गई थी, जहां संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन ढांचा सम्मेलन (UNFCCC) की स्थापना हुई। UNFCCC का लक्ष्य जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए देशों को एकजुट करना था। हालांकि, UNFCCC में कोई बाध्यकारी लक्ष्य नहीं थे, जिसके कारण 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल को अपनाया गया।

  • 1997: क्योटो, जापान में तीसरे UNFCCC सम्मेलन (COP-3) में प्रोटोकॉल को अंतिम रूप दिया गया
  • 2005: रूस के अनुमोदन के बाद यह प्रोटोकॉल आधिकारिक रूप से लागू हुआ।
  • 2012: प्रोटोकॉल की पहली प्रतिबद्धता अवधि समाप्त हुई, जिसके बाद दोहा संशोधन (Doha Amendment) के तहत दूसरी अवधि (2013-2020) शुरू हुई।

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) ने विकसित और विकासशील देशों के बीच जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया। इसे “साझा लेकिन भेदभावपूर्ण जिम्मेदारी” (Common but Differentiated Responsibilities) के सिद्धांत पर आधारित किया गया, जिसका अर्थ है कि विकसित देशों को अधिक जिम्मेदारी लेनी होगी, क्योंकि उन्होंने औद्योगीकरण के दौरान सबसे अधिक उत्सर्जन किया।

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) के मुख्य लक्ष्य

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) का उद्देश्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करके जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करना है। इसके कुछ प्रमुख लक्ष्य निम्नलिखित हैं:

  • उत्सर्जन में कमी: विकसित देशों के लिए 2008-2012 की पहली प्रतिबंधता अवधि में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 1990 के स्तर से औसतन 5.2% कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया।
  • बाध्यकारी प्रतिबद्धताएं: प्रोटोकॉल में शामिल देशों को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य किया गया।
  • लचीलापन तंत्र: उत्सर्जन व्यापार (Emissions Trading), संयुक्त कार्यान्वयन (Joint Implementation), और स्वच्छ विकास तंत्र (Clean Development Mechanism) जैसे तंत्रों को पेश किया गया, ताकि देश अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में लचीलापन दिखा सकें।
  • विकासशील देशों की सहायता: विकासशील देशों को उत्सर्जन में कमी के लिए बाध्य नहीं किया गया, लेकिन उन्हें प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और वित्तीय सहायता प्रदान की गई।

क्योटो प्रोटोकॉल ने कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O), और अन्य ग्रीनहाउस गैसों को नियंत्रित करने पर जोर दिया।

(Kyoto Protocol) क्योटो प्रोटोकॉल के तंत्र

क्योटो प्रोटोकॉल ने उत्सर्जन को कम करने के लिए तीन प्रमुख तंत्र पेश किए, जो इसे एक व्यावहारिक और लचीली योजना बनाते हैं:

  • Emissions Trading (उत्सर्जन व्यापार): इसे “कार्बन मार्केट” के रूप में भी जाना जाता है। इसके तहत देशों को उत्सर्जन की एक निश्चित मात्रा (क्वोटा) दी जाती है। यदि कोई देश अपने कोटे से कम उत्सर्जन करता है, तो वह अपने बचे हुए कोटे को अन्य देशों को बेच सकता है। यह तंत्र लागत को कम करने में मदद करता है।
  • Clean Development Mechanism (CDM): क्योटो प्रोटोकॉल के इस तंत्र के तहत, विकसित देश विकासशील देशों में स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश करके उत्सर्जन क्रेडिट कमा सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में सौर ऊर्जा परियोजनाएं CDM के तहत वित्त पोषित हुई हैं।
  • Joint Implementation (संयुक्त कार्यान्वयन):इस तंत्र में दो विकसित देश मिलकर उत्सर्जन में कमी की परियोजनाओं पर काम करते हैं और क्रेडिट साझा करते हैं।

ये तंत्र न केवल उत्सर्जन में कमी को प्रोत्साहित करते हैं, बल्कि आर्थिक विकास और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को भी बढ़ावा देते हैं।

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) में भारत की भूमिका

भारत ने क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) को 2002 में अनुमोदित किया, लेकिन एक विकासशील देश होने के नाते, इसे उत्सर्जन में कमी के लिए बाध्यकारी लक्ष्य नहीं दिए गए। भारत ने क्योटो प्रोटोकॉल के तहत कई लाभ प्राप्त किए:

  • CDM परियोजनाएं: भारत ने स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) के तहत सौर, पवन, और बायोमास जैसे नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश आकर्षित किया। 2012 तक भारत CDM परियोजनाओं में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा लाभार्थी था।
  • प्रौद्योगिकी हस्तांतरण: भारत को विकसित देशों से पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकियां प्राप्त हुईं।
  • आर्थिक विकास: CDM परियोजनाओं ने रोजगार सृजन और बुनियादी ढांचे के विकास में योगदान दिया।

हालांकि, भारत ने तर्क दिया कि क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) में विकसित देशों पर अधिक जिम्मेदारी डालने का सिद्धांत उचित है, क्योंकि उन्होंने ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक उत्सर्जन किया है। भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपनी राष्ट्रीय योजनाएं भी शुरू कीं, जैसे नेशनल सोलर मिशन और नेशनल मिशन फॉर एनहांस्ड एनर्जी एफिशिएंसी।


क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) की उपलब्धियां

क्योटो प्रोटोकॉल ने जलवायु परिवर्तन से निपटने में कई महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं:

  • वैश्विक जागरूकता: इसने जलवायु परिवर्तन को वैश्विक एजेंडे में सबसे ऊपर लाया।
  • उत्सर्जन में कमी: कई विकसित देशों ने अपने उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य प्राप्त किए। उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ ने 2008-2012 में अपने लक्ष्य से अधिक कमी की।
  • नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा: CDM परियोजनाओं ने विकासशील देशों में स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा दिया।
  • कार्बन बाजार की स्थापना: उत्सर्जन व्यापार ने कार्बन क्रेडिट की अवधारणा को लोकप्रिय बनाया।

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) की सीमाएं

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) की कुछ कमियां भी थीं, जिनके कारण इसका प्रभाव सीमित रहा:

  • प्रमुख देशों की गैर-भागीदारी: संयुक्त राज्य अमेरिका, जो उस समय दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक था, ने प्रोटोकॉल को अनुमोदित नहीं किया। इससे इसकी प्रभावशीलता कम हुई।
  • विकासशील देशों पर कोई बाध्यता नहीं: चीन और भारत जैसे बड़े उत्सर्जकों को बाध्यकारी लक्ष्य नहीं दिए गए, जिसे कुछ देशों ने आलोचना की।
  • सीमित कवरेज: प्रोटोकॉल में केवल कुछ ग्रीनहाउस गैसों को शामिल किया गया, और विमानन और शिपिंग जैसे क्षेत्रों को बाहर रखा गया।
  • अनुपालन की कमी: कुछ देश अपने लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रहे, और अनुपालन के लिए कोई सख्त दंड नहीं था।

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) के बाद का परिदृश्य

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) की पहली प्रतिबद्धता अवधि 2012 में समाप्त होने के बाद, दोहा संशोधन के तहत दूसरी अवधि (2013-2020) शुरू हुई। हालांकि, 2015 में पेरिस समझौते (Paris Agreement) के अपनाए जाने के बाद क्योटो प्रोटोकॉल की प्रासंगिकता कुछ हद तक कम हो गई। पेरिस समझौता अधिक व्यापक है, क्योंकि इसमें सभी देशों—विकसित और विकासशील—को अपने उत्सर्जन में कमी के लिए स्वैच्छिक लक्ष्य निर्धारित करने की आवश्यकता है।

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) ने पेरिस समझौते के लिए एक आधार तैयार किया, और इसके तंत्र, जैसे CDM, आज भी प्रासंगिक हैं। About us


भारत के लिए क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) का भविष्य

भारत, जो अब दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक है, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रहा है। क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) ने भारत को नवीकरणीय ऊर्जा और स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश करने का अवसर प्रदान किया, लेकिन अब भारत पेरिस समझौते के तहत अधिक सक्रिय भूमिका निभा रहा है।

भारत ने 2030 तक अपनी ऊर्जा का 50% नवीकरणीय स्रोतों से प्राप्त करने और अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को 45% कम करने का लक्ष्य रखा है। क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) के अनुभवों ने भारत को इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद की है।


निष्कर्ष

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) जलवायु परिवर्तन से लड़ने का पहला वैश्विक प्रयास था, जिसने उत्सर्जन में कमी के लिए बाध्यकारी लक्ष्य निर्धारित किए। हालांकि इसकी कुछ सीमाएं थीं, इसने वैश्विक जागरूकता बढ़ाने, नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने, और कार्बन बाजार की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए, क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) ने प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और आर्थिक विकास के अवसर प्रदान किए।

आज, पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन से निपटने का मुख्य मंच है, लेकिन क्योटो प्रोटोकॉल का योगदान हमेशा याद रखा जाएगा। यह हमें सिखाता है कि वैश्विक समस्याओं से निपटने के लिए सहयोग और सामूहिक प्रयास जरूरी हैं।

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